ॐ अग्निमीले पुरोहितं यज्ञस्य देवमृत्विजम्। होतारं रत्नधातमम्।।


ॐ अग्निमीले पुरोहितं यज्ञस्य देवमृत्विजम्। होतारं रत्नधातमम्।।~ॐ Agnimile Purohitam Yajnasya Devamritvijam. Hotaran Ratnadhatamam.

हम अग्नि की उपासना करते हैं जो यज्ञ(श्रेष्ठ कर्म) के पुरोहित(आगे बढ़ाने वाला) , देवता(अनुदान देने वाला) और याचक की रत्नों से विभूषित करने वाले हैं।  

विश्व के सबसे प्राचीन ग्रंथ ऋग्वेद का प्रथम मंत्र है यह, जिसमें अग्नि की उपासना की गई है।

सोचने वाली बात है , अग्नि ही क्यों ?

ऋग्वेद की शुरुआत अग्नि की प्रार्थना से होती है, जो परमात्मा  की पहली विशेषता है। पहले अध्याय में, पहला सूक्त जिसमें नौ श्लोक हैं, अग्नि को समर्पित है। हजारों साल पहले, हमारे ऋषियों ने ब्रह्मांड के निर्माण में अग्नि के महत्व को समझा। उन्होंने यह ज्ञान प्राप्त किया कि, यह अग्नि ही है, जिसने परमाणुओं के समन्वय के निर्माण की प्रक्रिया शुरू की, जो आकाश से प्रकट हुई। अग्नि की शक्ति से तारकीय धूल, तारे और ग्रह बने। उन्होंने महसूस किया कि सृजन अग्नि द्वारा निरंतर और पोषित है। इसके अलावा, जब अंत आता है, तो पूरी रचना अग्नि द्वारा भस्म हो जाएगी। इसलिए, ऋग्वेद अग्नि की उपासना से शुरू होती है। 

सृष्टि के सभी पाँच तत्त्वों – अग्नि, जल, वायु, पृथ्वी और आकाश, यह अग्नि ही है जो दूसरों की संरचना और अखंडता की अनुमति देता है और उसकी निगरानी करता है। इसलिए, ऋग्वेद, जो कि ब्रह्मांडीय ज्ञान का भंडार है, अग्नि की प्रार्थना से शुरू होता है।

विश्व की सभी सभ्यताओं के धर्म में एक महत्वपूर्ण समानता है, सबमें अग्नि की पूजा की गई है। भारत की प्राचीन वैदिक सभ्यता, बेबिलोन की सभ्यता, फारस की सभ्यता, मिस्र की सभ्यता, यूनान की सभ्यता, मेसोपोटामिया की सभ्यता, सबमें अग्नि की पूजा की गई है। पारसी तो अब एकमात्र अग्नि की ही आराधना करते हैं। कारण स्पस्ट है, बुद्धि होने के बाद मनुष्य को सबसे पहले जिस प्राकृतिक शक्ति ने प्रभावित किया वह अग्नि ही थी। अग्नि ने मनुष्य को पका हुआ भोजन दिया, अग्नि ने मनुष्य को शीत से बचाया, अग्नि ने मनुष्य को जीवन दिया।

इसके अतिरिक्त मनुष्य ने आग लगने की स्थिति में अग्नि का भयावह प्रकोप भी देखा। अग्नि मनुष्य के बाहर भी थी, अग्नि मनुष्य के अंदर भी थी। अग्नि सबसे अच्छी मित्र थी, अग्नि सबसे बड़ी शत्रु भी थी। इसलिए मनुष्य ने अग्नि को ही अपना पहला देव माना। पृथ्वी पर सर्वप्रथम ईश्वर को समझने वाले आर्यों ने सिन्धु-सरस्वती तट पर जब आराधना की प्रथम पद्धति विकसित की तो अग्नि ने ही उनके यज्ञों को सम्पन्न कराया। यह अग्नि की शक्ति थी, और मनुष्य शक्ति को पूजता है। सो सृष्टि के उन प्रथम बौद्धिकों ने अग्नि के लिए अपनी प्रथम ऋचा रच कर उसका आभार जताया। यह सनातन का प्रकृति के प्रति कृतज्ञता का भाव था। इसी कृतज्ञता के भाव ने मिस्र, फारस, बेबिलोन, मेसोपोटामिया आदि से भी अग्नि की पूजा कराई।

सच पूछिये तो प्रकृति के प्रति कृतज्ञ होने की यह परम्परा ही सभ्यता है। यदि कोई समाज प्रकृत के कण-कण के साथ सभ्य व्यवहार करे तभी वह सभ्यता कहलाने के योग्य है, अन्यथा वह एक झुंड मात्र है। और समस्त प्रकृति के प्रति इसी सभ्य आचरण की व्यवस्था ही धर्म है। ईसा के बाद मनुष्य ने निरन्तर सभ्य से असभ्य होने की ओर यात्रा की है। जबतक सभ्यताएं थीं, मनुष्य पृथ्वी, जल, अग्नि, नदी, पहाड़, वन, पशु, पक्षी, कीट सबका आदर करता था, जबसे नए नए सम्प्रदायों ने सभ्यताओं को निगलना प्रारम्भ किया, मनुष्य प्रकृत के प्रति अनुदार होता गया, स्पष्ट कहें तो मनुष्य प्रकृति का शत्रु होता गया। नदी, पहाड़, पृथ्वी, पशु-पक्षी आदि उसके लिए संसाधन मात्र होते गए। मनुष्य अब मात्र स्वयं की सुविधा के लिए सोचने लगा, पशु-पक्षियों को खाने लगा, नदी-पर्वत-वनों का अतिक्रमण करने लगा, अधर्मी होने लगा। कई बार हम धर्म और सम्प्रदाय को एक मान लेते हैं, जो है नहीं। धर्म तो केवल सभ्यताओं का ही होता है, मात्र स्वयं के लिए सोचने वाले मनुष्यों के झुंड का धर्म कैसा?

इन सारे सम्प्रदायों में एक समानता यह भी है कि किसी में भी प्रकृति के प्रति समर्पण या श्रद्धा का भाव नहीं। सब केवल मनुष्य तक ही सोचते हैं, और इनमें कुछ तो केवल अपने सम्प्रदाय तक ही सोचते हैं।

पूरे विश्व में प्रकृतिपूजा से प्रारम्भ हुई धार्मिक व्यवस्था आज यहाँ पहुँची है कि सनातन के अतिरिक्त अन्य कहीं प्रकृति के प्रति श्रद्धा नहीं बची। भारत की सत्ता यदि विकास की यूरोपीय परिभाषा का भ्रम छोड़ दे, तो वह विश्व को प्रकृतिपूजा सिखा कर ही विश्वगुरु हो सकता है, क्योंकि एक आम ग्रामीण हिन्दू के लिए नदी, पेंड, पशु, पक्षी सब देवी-देवता हैं। आज भी नित्य असँख्य पुरोहित अग्नि की उपासना करते हुए “ॐ अग्नि देवाय नमः” का जाप करते हैं। भारत आज भी प्रकृति को पूजता है, प्रकृति को आज मात्र भारत ही पूजता है।

प्रकृति जिस तरह मनुष्य के कुकर्मों के विरुद्ध मुखर हो रही है, उससे लगता है एक दिन पुनः विश्व प्रकृति को पूजेगा… उस दिन सम्भवतः समस्त विश्व ऋग्वेद के इस प्रथम मंत्र को श्रद्धा से बाँचेगा। 

आज के समय के हिसाब से समझते हैं, यदि हम चूल्हे मे अग्नि को जलता रखना चाहते हैं तो उसके लिए हमे उचित समय पे उचित मात्रा में ईंधन डालते रहना आवश्यक है। यदि इंधन न मिले अथवा कम मिले तो अग्नि मंद हो जाती है या बुझ जाती है, यदि ईंधन ज्यादा डाल दिया जाए तो भी वह बुझ जाती है. चूल्हे पर चावल पकने के लिए दिए हो और अगर अग्नि मंद हो तो अग्नि बर्तन को स्पर्श ही नहीं करेगी और अगर अधिक हो तो चावल जल जाएगा चावल पकाने के लिए उचित मात्रा में ईंधन आवश्यक है उसी प्रकार जीवन मे भी अगर हम अपनी ऊर्जा को को सही मात्रा मे उपयोग करने की सीख मिलती हैं। 

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