सर्वे भवन्तु सुखिन: सर्वे सन्तु निरामया: ।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दु:ख भाग्भवेत् ॥~
sarve bhavantu sukhinah
सभी सुखी हों, सभी निरोगी हो, सभी का कल्याण हो , सभी शुभ देखे ,कोई भी दुख का भागी न हो, किसी को कोई आभाव न हो ।
ऋग्वेद में कहा गया है , हमे सब ओर से अपराजित, समुन्नतकारक ,शुभ, सुंदर, कल्याणकारक भावनाओं की उन्नति हो । इस उत्तम विचारधारा से हिन्दू हिन्दू धर्म एवम धर्म ओतप्रोत है। भगीरथ द्वारा गंगा का धरती पर लाया जाना उनकी तपस्या का फल था । तथापिगंगा को धरती पर पर प्रवहित करके उन्होंनेजो लोककल्याणकिया है वो बहुजन सुखाये और बहुजन हिताय का ही मूल मंत्र देता है । यथार्थहिन्दू सांस्कृति तथा धर्म असीम संरचना है तथा एक विकसितजीवन शैलीका रूप है । रिग वेद में मनुष्य के दो लक्षयबताये गए हैं
“आत्मनो मोक्षार्थ जगत हिताय च ।”
अर्थात मोक्ष कल्याण या हित। इस तरह अनादिकाल से हिन्दू धर्म मे बहुजन हिताय की चिंतन धारा प्रवाहित हो रही है जो अहिंसा,प्रेम,क्षमा,सहिसनुता,इत्यादिइस चिंतन धारा के प्रेरक तत्व हैं।
आज मनुष्य बहुजन सुखाय ,और बहुजन हिताय के मूलमंत्र से भटक गया है,वो स्वार्थी हो गया है । स्वार्थ मनुष्य का स्वभाव, मनुष्य का परिचय बन चुका है,जबकि मनुष्य का परिचय दिया,परोपकार,तथा करुणा होना चाहिये। मनुष्य समझने में असमर्थ होता जा रहा है कि जिस स्वार्थ को उसने अपना परिचय बनाया है ,उसे उससे सिर्फ हानि ही होगी,परंतु वो क्षणिक सुख के लिये वो अपने अस्तित्व को अंधकार में खोते जा रहा है ।
हुम् आत्मिक सुख को नकारकर भौतिक सुख को अपनाते जा रहे है, हमे अपने परिवार ,माता पिता, से ज्यादा प्रेम धन से होता जा रहा है । धन जो कि आज है कल नही परन्तु माता पिता,परिवार ही है जो हमे मुसीबत में साथ देते है ।
हर रोज़ हुम् जब घर से निकलते हैं, तो हमारी मुलाकात अनेक लोगोंसे होती है ,कोई चहरे पे मुस्कान लिए है तो किसी के माथे पर शिकन होती है, कोई अपने संतान से परेशान है तो कोई पत्नी से तो कोई अपने व्यापारको लेकर चिंतित है । निष्कर्षये है कि अधिकतर प्राणी स्वयं के या स्वयं के सुख के लिए परेशान है ,आने वाले समय मे सुख की प्राप्ति के लिए आज के समय का आनंद लेने के बजाय वो आने वाले समय को लेकर चिंतितहै कि कल क्या होगा इस करणवर्स हम आज को जिन भूल जाते हैं ।
आने वाले समय के लिए स्वयं को सज्ज रखना आवश्यक परंतु स्वयं को भविष्य को लेकर भयभीत करना कदापि उचित नहीं है,
हमारी संस्कृति ने हमेशा हमे ये सिखाया है ,की दुसरो के सुख में ही स्वयं का सुख है ,परन्तु दुसरो के दुख में भी अगर सुख होता है तो हम अपनी वास्तविक पहचान खो चुके है । हमे स्वयं से सवाल करने की आवश्यकताहै कि हम कौन हैं??
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यदि हम अच्छाई और बुराई में भेद करना जानते है, तो स्वयं को जानने के बजाए क्यों ना हम स्वयं ही स्वयं का निर्माण करना शुरू कर दें।
मानव जाती आज बहुत दूर निकाल गई है। यथार्थ यह सत्य है जीवन है तो लक्ष्य भी होगा किन्तु सत्य यह भी है कि उस लक्ष्य को देखने के लिए आज मनुष्य के पास वह दृष्टिकोण नहीं है।
Nice